यक़ीन है कि वो मेरी ज़बाँ समझता है
यक़ीन है कि वो मेरी ज़बाँ समझता है
मगर ज़बाँ के इशारे कहाँ समझता है
फ़राज़-ए-दार को जो आसमाँ समझता है
उसे भी कब ये अलू-ए-मकाँ समझता है
उसे पता है कि रुकती नहीं है छाँव कभी
तो फिर वो अब्र को क्यूँ साएबाँ समझता है
तिलिस्म-ए-ख़्वाब हुआ पाश पाश कब का मगर
हक़ीक़तों को वो परछाइयाँ समझता है
उसे ये रिश्ता-ए-आब-ओ-सराब ला-यानी
कि वो ज़ुहूर ओ ख़िफ़ा की ज़बाँ समझता है
ये दिल की आग बुझी है कि शम्-ए-जाँ हुई गुल
जो 'मीर' पर्दा-ए-शब को धुआँ समझता है
तमाम लफ़्ज़ खड़े चीख़ते हैं और 'सलीम'
ख़मोशियों को वफ़ूर-ए-बयाँ समझता है
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