सदियों के रंग-ओ-बू को न ढूँडो गुफाओं में
सदियों के रंग-ओ-बू को न ढूँडो गुफाओं में
आओ किसी से पूछो पता उन का गाँव में
घबरा के बुलबुले ने समुंदर की ज़ात से
फैला दिया वजूद को सारी दिशाओं में
आवाज़ ख़ुद को दो तो मिले कुछ जवाब भी
आख़िर पुकारते हो किसे तुम ख़लाओं में
ढूँडो तो देवताओं के आदर्श हैं बहुत
पर आदमी का रंग कहाँ देवताओं में
जोगी को आज रूप का वरदान मिल गया
ठहरा जो दो घड़ी तिरे पीपल की छाँव में
था नाज़ मुझ को जिस की शनासाई पर वही
फैला रहा है ज़हर मिरे आश्नाओं में
आसेब हसरतों का उन्हें खाए है 'सलीम'
कटती थी जिन की रात कभी अप्सराओं में
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