रहा वो शहर में जब तक बड़ा दबंग रहा
रहा वो शहर में जब तक बड़ा दबंग रहा
मगर ख़ुद अपने ख़िलाफ़ आप महव-ए-जंग रहा
हुई जो सुब्ह तो बे-बर्ग-ओ-बार थे अश्जार
तमाम रात हवा का अजीब रंग रहा
अना पसंद था बैसाखियों को छूता क्यूँ
रहा वो सरकश-ओ-बाग़ी मगर अपंग रहा
ब-जुज़ दरीद-ओ-बुरीद और क्या है उस का मआल
वो फिर भी डोर से टूटी हुई पतंग रहा
सियह जज़ीरा समुंदर में आफ़्ताब-ब-दस्त
ज़मीं से टूट गया और ज़मीं का अंग रहा
दिया है उस ने हमें एक शोर-ए-बे-आहंग
हज़ार साल जो दौर-ए-रबाब-ओ-चंग रहा
ये आइना रहा ख़त्त-ए-शिकस्त से महरूम
'सलीम' महव-ए-ग़म-ए-इंतिज़ार-ए-संग रहा
(928) Peoples Rate This