नहीं है कोई दूसरा मंज़र चारों ओर
नहीं है कोई दूसरा मंज़र चारों ओर
फैला है तारीक समुंदर चारों ओर
ज़िंदा हूँ बस एक यही है मेरा जुर्म
लोग खड़े हैं ले कर पत्थर चारों ओर
किस दरिया को ढूँडे ये जन्मों की प्यास
आग लगी है मेरे अंदर चारों ओर
वहम ओ ख़िरद के मारे हैं शायद सब लोग
देख रहा हूँ शीशे के घर चारों ओर
छोटे से आँगन में होती है जो बात
फैला करती है वो अक्सर चारों और
अपनी बातों पर भी नहीं आता है यक़ीं
अब तो यहाँ फिरते हैं पयम्बर चारों ओर
तन्हाई में भी सहमा सहमा हर शख़्स
ख़ौफ़ ने फैला रक्खे हैं पर चारों ओर
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