किसी रुत में जब मुस्कुराता है तू
किसी रुत में जब मुस्कुराता है तू
नुमू पत्थरों में जगाता है तू
तिरा शोला-ए-नुत्क़ रूह-ए-रवाँ
उफ़ुक़-ता-उफ़ुक़ फैल जाता है तू
कभी खोलता है समुंदर के राज़
कभी एक क़तरा छुपाता है तू
कभी ग़र्क़ कर दे सफ़ीने हज़ार
कभी एक कश्ती तराता है तू
कभी फूँक दे वादी-ए-गुल तमाम
कभी आग में गुल खिलाता है तू
कभी शरह-ए-ला-तक़्नतू के लिए
सराबों में दरिया बहाता है तू
गवारा नहीं तुझ को वीरानियाँ
ख़राबों को फिर से बसाता है तू
सियह सख़्त मौजों के आसेब में
जज़ीरे धनक रंग उगाता है तू
तिरे इज़्न से अंधी आँखों में नूर
कभी ख़ाक में रम जगाता है तू
किरन भेज कर एक ज़ुल्मात की
शहंशाहों को ज़लज़लाता है तू
उजालों में हैं तेरी रंगीनियाँ
अँधेरों में शमएँ जलाता है तू
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