हर बज़्म क्यूँ नुमाइश-ए-ज़ख़्म-ए-हुनर बने
हर भेद अपने दोस्तों के दरमियाँ न खोल
Mir Taqi Mir
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मैं वो आँसू कि जो माला में पिरोया जाए
मंज़र मिरी आँखों में रहे दश्त-ए-सफ़र के
दर्द की ख़ुश्बू से सारा घर मोअ'त्तर हो गया
क्या मेरा इख़्तियार ज़मान-ओ-मकान पर
मत पूछ कि इस पैकर-ए-ख़ुश-रंग में क्या है
फिर कोई महशर उठाने मेरी तन्हाई में आ
मिरी थकन मिरे क़स्द-ए-सफ़र से ज़ाहिर है
सब थकन आँख में सिमट जाए
मेरे एहसास की रग रग में समाने वाले
खुलती है गुफ़्तुगू से गिरह पेच-ओ-ताब की
रौशन सुकूत सब उसी शो'ला-बयाँ से है
हर लहज़ा उस के पाँव की आहट पे कान रख