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मौसम का ज़हर दाग़ बने क्यूँ लिबास पर - सलीम शाहिद कविता - Darsaal

मौसम का ज़हर दाग़ बने क्यूँ लिबास पर

मौसम का ज़हर दाग़ बने क्यूँ लिबास पर

ये सोच कर न बैठ सका सब्ज़ घास पर

मुद्दत हुई कि ताइर-ए-जाँ सर्द हो चुका

उड़ते रहे हवाओं में कुछ बद-हवास पर

सूरज का फूल अब्र के पत्तों में गुम रहा

शब के शजर का साया रहा मुझ उदास पर

वो जा चुका है मोड़ से आँखें हटा भी ले

बेकार होंट सब्त हैं ख़ाली गिलास पर

कैसे नसीब हो तिरी बातों का ज़ाइक़ा

जी आ गया है ताज़ा फलों की मिठास पर

बेहतर है ख़ुद ही अजनबी बन कर उसे मिलें

इल्ज़ाम आए क्यूँ मिरे सूरत-शनास पर

एहसास भी न था कि है पत्थर मिरा बदन

हाँ डूबना पड़ा है उभरने की आस पर

पानी को रोकिए कि न होंटों तक आ सके

बेजा न उज़्र आए कहीं मेरी प्यास पर

ये कारोबार दर्द का फिर फैलता गया

खोली दुकाँ थी ज़ख़्म-ए-हुनर की असास पर

'शाहिद' हुए हैं दर्द के शो'लों से बे-ख़बर

चिंगारी फेंक दीजे हवा में कपास पर

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In Hindi By Famous Poet Saleem Shahid. is written by Saleem Shahid. Complete Poem in Hindi by Saleem Shahid. Download free  Poem for Youth in PDF.  is a Poem on Inspiration for young students. Share  with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.