ख़्वाहिश को अपने दर्द के अंदर समेट ले
ख़्वाहिश को अपने दर्द के अंदर समेट ले
पर्दाज़ बार-ए-दोश है तू पर समेट ले
अपनी तलब को ग़ैर की दहलीज़ पर न डाल
वो हाथ खिंच गया है तू चादर समेट ले
सुर्ख़ी तुलू-ए-सुब्ह की लौह-ए-उफ़ुक़ पे लिख
सारे बदन का ख़ून जबीं पर समेट ले
यकजा नहीं किताब-ए-हुनर के वरक़ हनूज़
अय्याम-ए-हर्फ़-हर्फ़ का दफ़्तर समेट ले
जो पेड़ हिल चुके हैं उन्हें आँधियों पे छोड़
शायद हवा ये राह के पत्थर समेट ले
ज़िंदा लहू तो शहर की गलियों में है रवाँ
'शाहिद' रगों में कौन ये महशर समेट ले
(559) Peoples Rate This