सलीम शाहिद कविता, ग़ज़ल तथा कविताओं का सलीम शाहिद
नाम | सलीम शाहिद |
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अंग्रेज़ी नाम | Saleem Shahid |
हर लहज़ा उस के पाँव की आहट पे कान रख
हर बज़्म क्यूँ नुमाइश-ए-ज़ख़्म-ए-हुनर बने
ज़ुल्मत है तो फिर शो'ला-ए-शब-गीर निकालो
ज़मीं को सज्दा किया ख़ूँ से बा-वज़ू हो कर
ये फ़ैसला भी मिरे दस्त-ए-बा-कमाल में था
वो ख़ूँ बहा कि शहर का सदक़ा उतर गया
उस को मिल कर देख शायद वो तिरा आईना हो
तर्ज़-ए-इज़हार में कोई तो नया-पन होता
सूरज ज़मीं की कोख से बाहर भी आएगा
सुब्ह-ए-सफ़र का राज़ किसी पर यहाँ न खोल
सब थकन आँख में सिमट जाए
रौशन सुकूत सब उसी शो'ला-बयाँ से है
रास्ता चाहिए दरिया की फ़रावानी को
क़ाइल करूँ किस बात से मैं तुझ को सितमगर
फिर कोई महशर उठाने मेरी तन्हाई में आ
मुर्दा रगों में ख़ून की गर्मी कहाँ से आई
मिरी थकन मिरे क़स्द-ए-सफ़र से ज़ाहिर है
मेरे एहसास की रग रग में समाने वाले
मौसम का ज़हर दाग़ बने क्यूँ लिबास पर
मत पूछ कि इस पैकर-ए-ख़ुश-रंग में क्या है
मत पूछ हर्फ़-ए-दर्द की तफ़्सीर कुछ भी हो
मंज़र मिरी आँखों में रहे दश्त-ए-सफ़र के
मैं वो आँसू कि जो माला में पिरोया जाए
क्या मेरा इख़्तियार ज़मान-ओ-मकान पर
ख़्वाहिश को अपने दर्द के अंदर समेट ले
खुलती है गुफ़्तुगू से गिरह पेच-ओ-ताब की
जुरअत-ए-इज़हार का उक़्दा यहाँ कैसे खुले
इन दर-ओ-दीवार की आँखों से पट्टी खोल कर
हूँ मैं भी वही मेरा मुक़ाबिल भी वही है
हर्फ़-ए-बे-मतलब की मैं ने किस क़दर तफ़्सीर की