याद का ज़ख़्म भी हम तुझ को नहीं दे सकते
देख किस आलम-ए-ग़ुर्बत में मिले हैं तुझ से
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एक तरफ़ तिरे हुस्न की हैरत एक तरफ़ दुनिया
बहुत दिनों में कहीं हिज्र-ए-माह-ओ-साल के बाद
चश्म बे-ख़्वाब हुई शहर की वीरानी से
कभी मौसम साथ नहीं देते कभी बेल मुंडेर नहीं चढ़ती
'सलीम' अब तक किसी को बद-दुआ दी तो नहीं लेकिन
अभी हैरत ज़ियादा और उजाला कम रहेगा
मिलना न मिलना एक बहाना है और बस
कोई याद ही रख़्त-ए-सफ़र ठहरे कोई राहगुज़र अनजानी हो
साल की आख़िरी शब
कहानी लिखते हुए दास्ताँ सुनाते हुए
लौ को छूने की हवस में एक चेहरा जल गया
बस इक रस्ता है इक आवाज़ और एक साया है