क़ुर्बतें होते हुए भी फ़ासलों में क़ैद हैं
कितनी आज़ादी से हम अपनी हदों में क़ैद हैं
Gulzar
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मिलना न मिलना एक बहाना है और बस
मुझे सँभालने में इतनी एहतियात न कर
डूबने वाले भी तन्हा थे तन्हा देखने वाले थे
वो जिन के नक़्श-ए-क़दम देखने में आते हैं
मैं ख़याल हूँ किसी और का मुझे सोचता कोई और है
तू सूरज है तेरी तरफ़ देखा नहीं जा सकता
क्या बताएँ फ़स्ल-ए-बे-ख़्वाबी यहाँ बोता है कौन
कोई सच्चे ख़्वाब दिखाता है पर जाने कौन दिखाता है
मैं ने जो लिख दिया वो ख़ुद है गवाही अपनी
अभी हैरत ज़ियादा और उजाला कम रहेगा
इस आलम-ए-हैरत-ओ-इबरत में कुछ भी तो सराब नहीं होता
इंतिज़ार और दस्तकों के दरमियाँ कटती है उम्र