मिरी रौशनी तिरे ख़द्द-ओ-ख़ाल से मुख़्तलिफ़ तो नहीं मगर
तू क़रीब आ तुझे देख लूँ तू वही है या कोई और है
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हम ने तो ख़ुद से इंतिक़ाम लिया
सफ़र की इब्तिदा हुई कि तेरा ध्यान आ गया
मुलाक़ातों का ऐसा सिलसिला रक्खा है तुम ने
वहाँ महफ़िल न सजाई जहाँ ख़ल्वत नहीं की
कुछ भी था सच के तरफ़-दार हुआ करते थे
अजनबी हैरान मत होना कि दर खुलता नहीं
ज़ोरों पे 'सलीम' अब के है नफ़रत का बहाव
और इस से पहले कि साबित हो जुर्म-ए-ख़ामोशी
तुम तो कहते थे कि सब क़ैदी रिहाई पा गए
क्या अजब कार-ए-तहय्युर है सुपुर्द-ए-नार-ए-इश्क़
दस्त-ए-दुआ को कासा-ए-साइल समझते हो
तू सूरज है तेरी तरफ़ देखा नहीं जा सकता