कभी इश्क़ करो और फिर देखो इस आग में जलते रहने से
कभी दिल पर आँच नहीं आती कभी रंग ख़राब नहीं होता
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तुझ से बढ़ कर कोई प्यारा भी नहीं हो सकता
कहीं तुम अपनी क़िस्मत का लिखा तब्दील कर लेते
सरासर नफ़ा था लेकिन ख़सारा जा रहा है
अभी हैरत ज़ियादा और उजाला कम रहेगा
आईना ख़ुद भी सँवरता था हमारी ख़ातिर
ऐ शब-ए-हिज्र अब मुझे सुब्ह-ए-विसाल चाहिए
ऐ मिरे चारागर तिरे बस में नहीं मोआमला
डूबने वाले भी तन्हा थे तन्हा देखने वाले थे
इक घड़ी वस्ल की बे-वस्ल हुई है मुझ में
दस्त-ए-दुआ को कासा-ए-साइल समझते हो
चराग़-ए-याद की लौ हम-सफ़र कहाँ तक है
इस आलम-ए-हैरत-ओ-इबरत में कुछ भी तो सराब नहीं होता