इंतिज़ार और दस्तकों के दरमियाँ कटती है उम्र
इतनी आसानी से तो बाब-ए-हुनर खुलता नहीं
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मिरी रौशनी तिरे ख़द्द-ओ-ख़ाल से मुख़्तलिफ़ तो नहीं मगर
मुलाक़ातों का ऐसा सिलसिला रक्खा है तुम ने
अहल-ए-ख़िरद को आज भी अपने यक़ीन के लिए
वुसअत है वही तंगी-अफ़्लाक वही है
इस आलम-ए-हैरत-ओ-इबरत में कुछ भी तो सराब नहीं होता
बस इक रस्ता है इक आवाज़ और एक साया है
साए गली में जागते रहते हैं रात भर
और इस से पहले कि साबित हो जुर्म-ए-ख़ामोशी
कोई याद ही रख़्त-ए-सफ़र ठहरे कोई राहगुज़र अनजानी हो
मैं ने जो लिख दिया वो ख़ुद है गवाही अपनी
रात को रात ही इस बार कहा है हम ने
दिल तुझे नाज़ है जिस शख़्स की दिलदारी पर