भला वो हुस्न किस की दस्तरस में आ सका है
कि सारी उम्र भी लिक्खें मक़ाला कम रहेगा
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वो जिन के नक़्श-ए-क़दम देखने में आते हैं
दस्त-ए-दुआ को कासा-ए-साइल समझते हो
जुनूँ तब्दीली-ए-मौसम का तक़रीरों की हद तक है
कैसे हंगामा-ए-फ़ुर्सत में मिले हैं तुझ से
चश्म बे-ख़्वाब हुई शहर की वीरानी से
साल की आख़िरी शब
बहुत दिनों में कहीं हिज्र-ए-माह-ओ-साल के बाद
याद कहाँ रखनी है तेरा ख़्वाब कहाँ रखना है
अभी हैरत ज़ियादा और उजाला कम रहेगा
डूबने वाले भी तन्हा थे तन्हा देखने वाले थे
बदल गया है सभी कुछ उस एक साअत में