लय मोहब्बत की है आहंग सुख़न-साज़ का है
हर नई नस्ल से रिश्ता मिरी आवाज़ का है
आसमाँ अपनी हदें खोल रहा है मुझ पर
तू कभी देख जो आलम मिरी परवाज़ का है
ये जो अब जा के ख़लिश होने लगी है दिल में
ऐसा लगता है कोई ज़ख़्म ये आग़ाज़ का है
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अभी हैरत ज़ियादा और उजाला कम रहेगा
क्या बताएँ फ़स्ल-ए-बे-ख़्वाबी यहाँ बोता है कौन
कैसे हंगामा-ए-फ़ुर्सत में मिले हैं तुझ से
मोहलत न मिली ख़्वाब की ताबीर उठाते
इक घड़ी वस्ल की बे-वस्ल हुई है मुझ में
ग़ुबार होती सदी के सहराओं से उभरते हुए ज़माने
कहानी लिखते हुए दास्ताँ सुनाते हुए
वो आँखें जिन से मुलाक़ात इक बहाना हुआ
तिलिस्म-ख़ाना-ए-अस्बाब मेरे सामने था
मुझे सँभालने में इतनी एहतियात न कर
तुम तो कहते थे कि सब क़ैदी रिहाई पा गए
न इस तरह कोई आया है और न आता है