लफ़्ज़ ले कर ख़याल की वुसअत
शेर की ताज़गी की सम्त गया
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वो चाँद टूट गया जिस से रात रौशन थी
हर क़दम आगही की सम्त गया
मशवरा
दीद के बदले सदा दीदा-ए-तर रक्खा है
शाख़-दर-शाख़ तिरी याद की हरियाली है
चमकती ओस की सूरत गुलों की आरज़ू होना
ख़ुशबू सा कोई दिन तो सितारा सी कोई शाम
आख़िरी पड़ाव
मैं रात हव्वा
कहीं आँखें कहीं बाज़ू कहीं से सर निकल आए
ग़मों की आग पे सब ख़ाल-ओ-ख़द सँवारे गए
शाम ढलते ही तिरे ध्यान में आ जाता हूँ