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मशवरा - सलीम फ़िगार कविता - Darsaal

मशवरा

तू छिन गया तो लगा जैसे

लकीरें मेरी हथेली के काग़ज़ से गिर गई हैं

और हाथ कफ़न से ज़्यादा

सफ़ेद हो गए हैं

अब जाने कौन से लम्हे की पुर-कार

लाईनों की इबारत दोबारा लिखे

मैं ने जीत उधार तो नहीं माँगी थी

हिज्र किसी ज़ालिम चौधरी की तरह

तमाम वस्ल का अनाज उठा कर ले गया है

और भूक जिस्म पे बालों की तरह उगने लगी है

वक़्त से मेरा मज़ाक़ कभी नहीं रहा

फिर जाने क्यूँ

सब ये मुझ से किसी बहुत क़रीबी दोस्त की तरह

खेलता रहता है

तेरे आँसू मेरी आँखों को

नर्गिस का सौंप कर गए हैं

जाने सुर्ख़ गुलाब का ज़ाइक़ा बीनाई कब चख्खे

सुनो

रस्ते अभी अपने मुसाफ़िर भूले नहीं

लौट आओ

वर्ना मालूम है तुम्हें

अब नया घर बनते देर नहीं लगती

रस्ते सुकड़ी हुई कलियाँ

और खेत सहन बनने से पहले चले आओ

कि तवील दूरियाँ

अपने मेहवर से हटने के मुतरादिफ़ हैं

और मदार से निकले हुए चाँद

एक दिन अख़बार की सुर्ख़ी बन कर

बाक़ी रद्दी के भाव बिकते हैं

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In Hindi By Famous Poet Saleem Figar. is written by Saleem Figar. Complete Poem in Hindi by Saleem Figar. Download free  Poem for Youth in PDF.  is a Poem on Inspiration for young students. Share  with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.