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तिरी निगाह की जब से मुआवनत न रही - सलीम फ़राज़ कविता - Darsaal

तिरी निगाह की जब से मुआवनत न रही

तिरी निगाह की जब से मुआवनत न रही

किसी के दिल में मिरी क़द्र-ओ-मंज़िलत न रही

दो एक पल ही कोई मुझ पे मुल्तफ़ित था मगर

तमाम उम्र किसी से मुख़ासमत न रही

रहा न क़ब्ज़ा तिरे दिल पे तो तअ'ज्जुब क्या

मिरी तो अपने इलाक़े पे सल्तनत न रही

कोई भी वाक़िआ' हो पुर-सुकूँ ही रहता है

लहू में पहली सी मौज-ए-मुज़ाहमत न रही

ख़बर नहीं है वहाँ गुल खिले कि धूल उड़ी

ग़ज़ाल-ए-दश्त से मेरी मुरासलत न रही

शह-ए-सुख़न से तिरे कौन मुत्तफ़िक़ न हो अब

कि मेरे बा'द सदा-ए-मुख़ालिफ़त न रही

'सलीम' लब पे सजाता था जैसे लफ़्ज़ वही

कि इस के बा'द सुख़न में वो तमकनत न रही

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In Hindi By Famous Poet Saleem Faraz. is written by Saleem Faraz. Complete Poem in Hindi by Saleem Faraz. Download free  Poem for Youth in PDF.  is a Poem on Inspiration for young students. Share  with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.