ये नहीं है कि नवाज़े न गए हों हम लोग
हम को सरकार से तमग़ा मिला रुस्वाई का
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'सलीम' दश्त-ए-तमन्ना में कौन है किस का
न जाने शेर में किस दर्द का हवाला था
ये चाहा था कि पत्थर बन के जी लूँ
मंज़िल-ए-बे-जहत की ख़ैर सई-ए-सफ़र है राएगाँ
न पूछो अक़्ल की चर्बी चढ़ी है उस की बोटी पर
इक आग सी जलती रही ता-उम्र लहू में
चली है मौज में काग़ज़ की कश्ती
मशरिक़ हार गया
निकल गए हैं जो बादल बरसने वाले थे
बैठे हैं सुनहरी कश्ती में और सामने नीला पानी है
आ के अब जंगल में ये उक़्दा खुला