ये चाहा था कि पत्थर बन के जी लूँ
सो अंदर से पिघलता जा रहा हूँ
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वस्ल ओ फ़स्ल की हर मंज़िल में शामिल इक मजबूरी थी
और तो क्या दिया बहारों ने
जितना आँख से कम देखूँ
आ के अब जंगल में ये उक़्दा खुला
मैं ग़म को बसा रहा हूँ दिल में
दिलों में दर्द भरता आँख में गौहर बनाता हूँ
उन को जल्वत की हवस महफ़िल में तन्हा कर गई
घर में कुछ कम है ये एहसास भी होता है 'सलीम'
इक पतिंगे ने ये अपने रक़्स-ए-आख़िर में कहा
ज़िंदगी मौत के पहलू में भली लगती है
इतनी काविश भी न कर मेरी असीरी के लिए
न जाने शेर में किस दर्द का हवाला था