वो बे-ख़ुदी थी मोहब्बत की बे-रुख़ी तो न थी
पे उस को तर्क-ए-तअल्लुक़ को इक बहाना हुआ
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अहल-ए-दिल ने इश्क़ में चाहा था जैसा हो गया
कौन तू है कौन मैं कैसी वफ़ा
ये ख़्वाब और भी देखेंगे रात बाक़ी है
दिलों में दर्द भरता आँख में गौहर बनाता हूँ
मुझे हर्फ़-ए-ग़लत समझा था तू ने
सख़्त बीवी को शिकायत है जवान-ए-नौ से
साए को साए में गुम होते तो देखा होगा
दश्त ओ दर ख़ैर मनाएँ कि अभी वहशत में
ख़ुश-नुमा लफ़्ज़ों की रिश्वत दे के राज़ी कीजिए
उस एक चेहरे में आबाद थे कई चेहरे
मुझे इन आते जाते मौसमों से डर नहीं लगता
इश्क़ और नंग-ए-आरज़ू से आर