उन को जल्वत की हवस महफ़िल में तन्हा कर गई
जो कभी होते थे अपनी ज़ात से इक अंजुमन
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घास में जज़्ब हुए होंगे ज़मीं के आँसू
दर-ब-दर ठोकरें खाईं तो ये मालूम हुआ
मुझे गिला न किसी संग का न आहन का
तू शीशा बने कि संग कुछ बन
बहुत तवील मिरी दास्तान-ए-ग़म थी मगर
हम ने शिकवा कभी किया न करें
उस एक चेहरे में आबाद थे कई चेहरे
अब
आफ़ाक़
कोई नहीं जो पता दे दिलों की हालत का
इस आँख में ख़्वाब-ए-नाज़ हो जा
रस्म-ए-जहाँ न छूट सकी तर्क-ए-इश्क़ से