तू शीशा बने कि संग कुछ बन
अंदर से मगर गुदाज़ हो जा
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वो मिरे दिल की रौशनी वो मिरे दाग़ ले गई
दर-ब-दर ठोकरें खाईं तो ये मालूम हुआ
मुझ से कहता है कि साए की तरह साथ हैं हम
इश्क़ और इतना मोहज़्ज़ब छोड़ कर दीवाना-पन
जो बात दिल में थी वो कब ज़बान पर आई
आ के अब जंगल में ये उक़्दा खुला
नया मज़मूँ किताब-ए-ज़ीस्त का हूँ
दिल हुस्न को दान दे रहा हूँ
किसी दश्त का लब-ए-ख़ुश्क हूँ जो न पाए मुज़्दा-ए-आब तक
'सलीम' दिल को मयस्सर सकूँ ज़रा न हुआ
हाल मत पूछ मोहब्बत का हवा है कुछ और
अहल-ए-दिल ने इश्क़ में चाहा था जैसा हो गया