सफ़र में इश्क़ के इक ऐसा मरहला आया
वो ढूँडता था मुझे और खो गया था मैं
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न जाने शेर में किस दर्द का हवाला था
बन के दुनिया का तमाशा मो'तबर हो जाएँगे
दश्त ओ दर ख़ैर मनाएँ कि अभी वहशत में
रस्म-ए-जहाँ न छूट सकी तर्क-ए-इश्क़ से
दिल हुस्न को दान दे रहा हूँ
मुझे गिला न किसी संग का न आहन का
किन नक़ाबों में है मस्तूर वो हुस्न-ए-मा'सूम
सफ़र
उन को जल्वत की हवस महफ़िल में तन्हा कर गई
रोज़ काग़ज़ पे बनाता हूँ मैं क़दमों के नुक़ूश
जितना आँख से कम देखूँ
मेरा दुश्मन