क़िस्सा छेड़ा मेहर ओ वफ़ा का अव्वल-ए-शब उन आँखों ने
रात कटी और उम्र गुज़ारी फिर भी बात अधूरी थी
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मुझे हर्फ़-ए-ग़लत समझा था तू ने
इक पतिंगे ने ये अपने रक़्स-ए-आख़िर में कहा
जिस आग से दिल सुलग रहे थे
मेरा दुश्मन
नहीं रहा मैं तिरे रास्ते का पत्थर भी
मेरा शोर-ए-ग़र्क़ाबी ख़त्म हो गया आख़िर
बज़्म आख़िर हुई शम्ओं' का धुआँ बाक़ी है
एक दरवाज़े पर
मिला जो काम ग़म-ए-मो'तबर बनाने का
बजा ये रौनक़-ए-महफ़िल मगर कहाँ हैं वो लोग
मैं वो मअ'नी-ए-ग़म-ए-इश्क़ हूँ जिसे हर्फ़ हर्फ़ लिखा गया
मैं ग़म को बसा रहा हूँ दिल में