मुझ से कहता है कि साए की तरह साथ हैं हम
यूँ न मिलने का निकाला है बहाना कैसा
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किन नक़ाबों में है मस्तूर वो हुस्न-ए-मा'सूम
समाअतों को अमीन-ए-नवा-ए-राज़ किया
वो मिरे दिल की रौशनी वो मिरे दाग़ ले गई
मैं सर छुपाऊँ कहाँ साया-ए-नज़र के बग़ैर
किसी दश्त का लब-ए-ख़ुश्क हूँ जो न पाए मुज़्दा-ए-आब तक
बन के दुनिया का तमाशा मो'तबर हो जाएँगे
सफ़र में इश्क़ के इक ऐसा मरहला आया
हर आँख का हासिल दूरी है
तर्क उन से रस्म-ओ-राह-ए-मुलाक़ात हो गई
तिरे साँचे में ढलता जा रहा हूँ
जिस का इंकार भी इंकार न समझा जाए
निकल गए हैं जो बादल बरसने वाले थे