मुझे हर्फ़-ए-ग़लत समझा था तू ने
सो मैं मअ'नी का दफ़्तर हो गया हूँ
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मंज़िल-ए-बे-जहत की ख़ैर सई-ए-सफ़र है राएगाँ
मुझ से कहता है कि साए की तरह साथ हैं हम
अब
याद ने आ कर यकायक पर्दा खींचा दूर तक
नुक़्ता
मिला जो काम ग़म-ए-मो'तबर बनाने का
रोज़ काग़ज़ पे बनाता हूँ मैं क़दमों के नुक़ूश
कोई नहीं जो पता दे दिलों की हालत का
हाल-ए-दिल कौन सुनाए उसे फ़ुर्सत किस को
मैं सर छुपाऊँ कहाँ साया-ए-नज़र के बग़ैर
मुझे गिला न किसी संग का न आहन का
लिबास-ए-दर्द भी हम ने उतारा