मुझे गिला न किसी संग का न आहन का
उसी ने तोड़ दिया जिस का आईना था मैं
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इश्क़ में जिस के ये अहवाल बना रक्खा है
कल नशात-ए-क़ुर्ब से मौसम बहार-अंदाज़ा था
जो बात दिल में थी वो कब ज़बान पर आई
कोई नहीं जो पता दे दिलों की हालत का
आँखों में सितारे से चमकते रहे ता-देर
लिबास-ए-दर्द भी हम ने उतारा
याद ने आ कर यकायक पर्दा खींचा दूर तक
मुझे हर्फ़-ए-ग़लत समझा था तू ने
रोज़ काग़ज़ पे बनाता हूँ मैं क़दमों के नुक़ूश
बुरा लगा मिरे साक़ी को ज़िक्र-ए-तिश्ना-लबी
हर आँख का हासिल दूरी है
नया मज़मूँ किताब-ए-ज़ीस्त का हूँ