मंज़िल का पता है न किसी राहगुज़र का
बस एक थकन है कि जो हासिल है सफ़र का
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कुछ हैं मंज़र हाल के कुछ ख़्वाब मुस्तक़बिल के हैं
सफ़र में इश्क़ के इक ऐसा मरहला आया
बहुत तवील मिरी दास्तान-ए-ग़म थी मगर
दिलों में दर्द भरता आँख में गौहर बनाता हूँ
मैं उस को भूल गया था वो याद सा आया
मिला जो काम ग़म-ए-मो'तबर बनाने का
घर में कुछ कम है ये एहसास भी होता है 'सलीम'
मेरी ग़ज़ल में एक नया सोज़-ए-जाँ भी है
तर्क उन से रस्म-ओ-राह-ए-मुलाक़ात हो गई
न जाने शेर में किस दर्द का हवाला था
खेल
नुक़्ता