मैं ग़म को बसा रहा हूँ दिल में
बे-घर को मकान दे रहा हूँ
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नया मज़मूँ किताब-ए-ज़ीस्त का हूँ
कुछ हैं मंज़र हाल के कुछ ख़्वाब मुस्तक़बिल के हैं
रस्म-ए-जहाँ न छूट सकी तर्क-ए-इश्क़ से
घास में जज़्ब हुए होंगे ज़मीं के आँसू
दुख दे या रुस्वाई दे
नया मकान
साथ उस के रह सके न बग़ैर उस के रह सके
अहल-ए-दिल ने इश्क़ में चाहा था जैसा हो गया
जो आँखों के तक़ाज़े हैं वो नज़्ज़ारे बनाता हूँ
आँसुओं से तू है ख़ाली दर्द से आरी हूँ मैं
दीदनी है हमारी ज़ेबाई
मेरा चेहरा