हम ने शिकवा कभी किया न करें
शिकवा है ए'तिराफ़ नाकामी
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आज तो नहीं मिलता ओर-छोर दरिया का
तिरे साँचे में ढलता जा रहा हूँ
दश्त ओ दर ख़ैर मनाएँ कि अभी वहशत में
न जाने शेर में किस दर्द का हवाला था
दिया
मुझे हर्फ़-ए-ग़लत समझा था तू ने
ज़िंदगी मौत के पहलू में भली लगती है
घास में जज़्ब हुए होंगे ज़मीं के आँसू
बजा ये रौनक़-ए-महफ़िल मगर कहाँ हैं वो लोग
आँखें
किसी को क्या बताऊँ कौन हूँ मैं