हाल-ए-दिल ना-गुफ़्तनी है हम जो कहते भी तो क्या
फिर भी ग़म ये है कि उस ने हम से पूछा ही नहीं
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किन नक़ाबों में है मस्तूर वो हुस्न-ए-मा'सूम
बुरा लगा मिरे साक़ी को ज़िक्र-ए-तिश्ना-लबी
उम्र भर काविश-ए-इज़हार ने सोने न दिया
वो लोग भी हैं जो मौजों से डर गए होंगे
दिल के अंदर दर्द आँखों में नमी बन जाइए
मेरा दुश्मन
मशरिक़ हार गया
इक पतिंगे ने ये अपने रक़्स-ए-आख़िर में कहा
नींद से पहले
एक ख़ुश्बू दिल-ओ-जाँ से आई
मजबूरियों का पास भी कुछ था वफ़ा के साथ
मुझ को दुश्वार हुआ जिस का नज़ारा तन्हा