हाल मत पूछ मोहब्बत का हवा है कुछ और
ला के किस ने ये सर-ए-राह दिया रक्खा है
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ख़ुश-नुमा लफ़्ज़ों की रिश्वत दे के राज़ी कीजिए
ये ख़्वाब और भी देखेंगे रात बाक़ी है
ज़िंदगी मौत के पहलू में भली लगती है
'सलीम' दिल को मयस्सर सकूँ ज़रा न हुआ
ख़ुद अपनी दीद से अंधी हैं आँखें
दीदनी है हमारी ज़ेबाई
मैं उस को भूल गया था वो याद सा आया
स्वाँग भरता हूँ तिरे शहर में सौदाई का
ख़ुद अपनी लौ में था मेहराब-ए-जाँ में जलता था
क़िस्सा छेड़ा मेहर ओ वफ़ा का अव्वल-ए-शब उन आँखों ने
बुरा लगा मिरे साक़ी को ज़िक्र-ए-तिश्ना-लबी
नींद से पहले