घर में कुछ कम है ये एहसास भी होता है 'सलीम'
ये भी खुलता नहीं किस शय की कमी लगती है
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आँखों में सितारे से चमकते रहे ता-देर
इश्क़ और नंग-ए-आरज़ू से आर
मैं ग़म को बसा रहा हूँ दिल में
साथ उस के रह सके न बग़ैर उस के रह सके
तिरे साँचे में ढलता जा रहा हूँ
जाने अंदर क्या हुआ मैं शोर सुन कर ऐ 'सलीम'
मैं वो मअ'नी-ए-ग़म-ए-इश्क़ हूँ जिसे हर्फ़ हर्फ़ लिखा गया
दिल हुस्न को दान दे रहा हूँ
मेरी ग़ज़ल में एक नया सोज़-ए-जाँ भी है
नहीं रहा मैं तिरे रास्ते का पत्थर भी
बज़्म आख़िर हुई शम्ओं' का धुआँ बाक़ी है
खेल