इक पतिंगे ने ये अपने रक़्स-ए-आख़िर में कहा
रौशनी के साथ रहिए रौशनी बन जाइए
Rahat Indori
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हाल-ए-दिल कौन सुनाए उसे फ़ुर्सत किस को
मेरा शोर-ए-ग़र्क़ाबी ख़त्म हो गया आख़िर
कुछ हैं मंज़र हाल के कुछ ख़्वाब मुस्तक़बिल के हैं
दिल जो इस बज़्म में आता है तो जाता ही नहीं
इश्क़ में जिस के ये अहवाल बना रक्खा है
हम हैं और राह-ए-कू-ए-बदनामी
बहुत तवील मिरी दास्तान-ए-ग़म थी मगर
मिला जो काम ग़म-ए-मो'तबर बनाने का
बन के दुनिया का तमाशा मो'तबर हो जाएँगे
किसी दश्त का लब-ए-ख़ुश्क हूँ जो न पाए मुज़्दा-ए-आब तक
एक दरवाज़े पर
नुक़्ता