दिल के लेने से 'सलीम' उस को नहीं है इंकार
लेकिन इस तरह कि इक़रार न समझा जाए
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ज़िंदगी मौत के पहलू में भली लगती है
वो बे-ख़ुदी थी मोहब्बत की बे-रुख़ी तो न थी
उम्र भर काविश-ए-इज़हार ने सोने न दिया
मंज़िल-ए-बे-जहत की ख़ैर सई-ए-सफ़र है राएगाँ
ये ख़्वाब और भी देखेंगे रात बाक़ी है
कल नशात-ए-क़ुर्ब से मौसम बहार-अंदाज़ा था
मुझे हर्फ़-ए-ग़लत समझा था तू ने
इश्क़ में जिस के ये अहवाल बना रक्खा है
नया मज़मूँ किताब-ए-ज़ीस्त का हूँ
तिरी जानिब से दिल में वसवसे हैं
दिल हुस्न को दान दे रहा हूँ
जो आँखों के तक़ाज़े हैं वो नज़्ज़ारे बनाता हूँ