दिल जो इस बज़्म में आता है तो जाता ही नहीं
एक दिन देखना दीवाना हुआ रक्खा है
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मेरा दुश्मन
कैसे क़िस्से थे कि छिड़ जाएँ तो उड़ जाती थी नींद
तिरी जानिब से दिल में वसवसे हैं
साथ उस के रह सके न बग़ैर उस के रह सके
आ के अब जंगल में ये उक़्दा खुला
ख़मोशी के हैं आँगन और सन्नाटे की दीवारें
ख़ुश-नुमा लफ़्ज़ों की रिश्वत दे के राज़ी कीजिए
रोज़ काग़ज़ पे बनाता हूँ मैं क़दमों के नुक़ूश
मेरा शोर-ए-ग़र्क़ाबी ख़त्म हो गया आख़िर
अब
बजा ये रौनक़-ए-महफ़िल मगर कहाँ हैं वो लोग
निकल गए हैं जो बादल बरसने वाले थे