दर-ब-दर ठोकरें खाईं तो ये मालूम हुआ
घर किसे कहते हैं क्या चीज़ है बे-घर होना
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दश्त ओ दर ख़ैर मनाएँ कि अभी वहशत में
इक आग सी जलती रही ता-उम्र लहू में
बन के दुनिया का तमाशा मो'तबर हो जाएँगे
वस्ल ओ फ़स्ल की हर मंज़िल में शामिल इक मजबूरी थी
बदन की आग को कहते हैं लोग झूटी आग
हम हैं और राह-ए-कू-ए-बदनामी
किसी को क्या बताऊँ कौन हूँ मैं
जो बात दिल में थी वो कब ज़बान पर आई
दुख दे या रुस्वाई दे
नहीं रहा मैं तिरे रास्ते का पत्थर भी
दिल हुस्न को दान दे रहा हूँ
ये ख़्वाब और भी देखेंगे रात बाक़ी है