उस ने जो ज़र्ब लगाई मुझे भरपूर लगी
मैं ने जब वार क्या उस की जगह ख़ाली थी
थक गया चूर हुआ हार गया
वो मिरा दुश्मन-ए-अय्यार मुझे मार गया
आख़िरी वक़्त में देखा तो वो दुश्मन मेरा
और तो कुछ भी न था मेरी ही परछाईं था
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लम्हा-ए-रफ़्ता का दिल में ज़ख़्म सा बन जाएगा
नया मज़मूँ किताब-ए-ज़ीस्त का हूँ
कोई नहीं जो पता दे दिलों की हालत का
बज़्म आख़िर हुई शम्ओं' का धुआँ बाक़ी है
ज़मीं यख़-बस्ता हो जाती है जब जाड़ों की रातों में
मेरी ग़ज़ल में एक नया सोज़-ए-जाँ भी है
नुक़्ता
शायद कोई बंदा-ए-ख़ुदा आए
ख़ुद अपनी दीद से अंधी हैं आँखें
वो लोग भी हैं जो मौजों से डर गए होंगे
आँखों में सितारे से चमकते रहे ता-देर
मैं वो मअ'नी-ए-ग़म-ए-इश्क़ हूँ जिसे हर्फ़ हर्फ़ लिखा गया