मिरे चारों तरफ़ हैं मेरे साए
ख़ुद अपनी तीरगी में घिर गया हूँ
दिए की तरह आधी रात को मैं
किसी ख़ाली मकाँ में जल रहा हूँ
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ज़िंदगी मौत के पहलू में भली लगती है
इतनी काविश भी न कर मेरी असीरी के लिए
वस्ल ओ फ़स्ल की हर मंज़िल में शामिल इक मजबूरी थी
इश्क़ और नंग-ए-आरज़ू से आर
आ के अब जंगल में ये उक़्दा खुला
तिरी जानिब से दिल में वसवसे हैं
दुख दे या रुस्वाई दे
जा के फिर लौट जो आए वो ज़माना कैसा
किसी दश्त का लब-ए-ख़ुश्क हूँ जो न पाए मुज़्दा-ए-आब तक
उम्र भर काविश-ए-इज़हार ने सोने न दिया
उस एक चेहरे में आबाद थे कई चेहरे
दिया