ख़ुद अपनी लौ में था मेहराब-ए-जाँ में जलता था
ख़ुद अपनी लौ में था मेहराब-ए-जाँ में जलता था
वो मुश्त-ए-ख़ाक था लेकिन चराग़ जैसा था
वो गुम हुआ तो मज़ामीन हो गए बे-रब्त
वही तो था जो मिरा मरकज़ी हवाला था
मिरे ख़याल की तज्सीम है वजूद तिरा
तिरे लिए बड़ी शिद्दत से मैं ने सोचा था
वो सिर्फ़ अपनी हुदूद-ओ-क़ुयूद का निकला
उस एक शख़्स को क्या क्या समझ के चाहा था
मकाँ बना के उसे बंद कर दिया वर्ना
ये रास्ता किसी मंज़िल को जाने वाला था
ये वाक़िआ' है कि हम ने वो रु-ए-नादीदा
बग़ैर मिन्नत-ए-चश्म-ओ-निगाह देखा था
मुआ'नी-ए-शब-ए-तारीक खुल रहे थे 'सलीम'
जहाँ चराग़ नहीं था वहाँ उजाला था
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