हर आँख का हासिल दूरी है
हर आँख का हासिल दूरी है
हर मंज़र इक मस्तूरी है
जो सूद ओ ज़ियाँ की फ़िक्र करे
वो इश्क़ नहीं मज़दूरी है
सब देखती हैं सब झेलती हैं
ये आँखों की मजबूरी है
इस साहिल से उस साहिल तक
क्या कहिए कितनी दूरी है
ये क़ुर्ब हुबाब ओ आब का है
ये वस्ल नहीं महजूरी है
मैं तुझ को कितना चाहता हूँ
ये कहना ग़ैर-ज़रूरी है
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