अहल-ए-दिल ने इश्क़ में चाहा था जैसा हो गया
अहल-ए-दिल ने इश्क़ में चाहा था जैसा हो गया
और फिर कुछ शान से ऐसी कि सोचा हो गया
ऐब अपनी आँख का या फ़ैज़ तेरा क्या कहूँ
ग़ैर की सूरत पे मुझ को तेरा धोका हो गया
तुझ से हम-आहंग था उतना कशिश जाती रही
मैं तिरा हम-क़ाफ़िया था ऐब-ए-ईता हो गया
याद ने आ कर यकायक पर्दा खींचा दूर तक
मैं भरी महफ़िल में बैठा था कि तन्हा हो गया
कश्ती-ए-सब्र-ओ-तहम्मुल मेरी तूफ़ानी हुई
रात को तेरा बदन जब मौज-ए-दरिया हो गया
क्या हुआ गर तेरे होंटों ने मसीहाई न की
तेरी आँखें देख कर बीमार अच्छा हो गया
इश्क़ मिट्टी का अजब था मुझ को बचपन में 'सलीम'
खेल में क्या सोचता मैं जिस्म मैला हो गया
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