सौ बार आई होंटों पे झूटी हँसी मगर
इक बार भी न दिल से कभी मुस्कुरा सके
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आए जो चंद तिनके क़फ़स में सबा के साथ
गुल-ओ-ग़ुंचा अस्ल में हैं तिरी गुफ़्तुगू की शक्लें
क्या इसी को बहार कहते हैं
मुझ को तो ख़ून-ए-दिल ही पीना है
बिजली गिरेगी सेहन-ए-चमन में कहाँ कहाँ
बू-ए-गुल बाद-ए-सबा लाई बहुत देर के बा'द
यूँ बाग़बाँ ने मोहर लगा दी ज़बान पर
है तिश्ना-लबी लेकिन हम क्यूँ उसे ज़हमत दें
हमेशा दूर के जल्वे फ़रेब देते हैं
ताबानी-ए-रुख़ ले कर तुम सामने जब आए
ये तो मालूम है उन तक न सदा पहुँचेगी