मुझ को तो ख़ून-ए-दिल ही पीना है
दस्त-ए-साक़ी में गर है जाम तो क्या
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क्या इसी को बहार कहते हैं
ख़ुशी के फूल खिले थे तुम्हारे साथ कभी
ताबानी-ए-रुख़ ले कर तुम सामने जब आए
गुल-ओ-ग़ुंचा अस्ल में हैं तिरी गुफ़्तुगू की शक्लें
बू-ए-गुल बाद-ए-सबा लाई बहुत देर के बा'द
ये तो मालूम है उन तक न सदा पहुँचेगी
शबनम ने रो के जी ज़रा हल्का तो कर लिया
तीरा-ओ-तार फ़ज़ाओं में जिया हूँ अब तक
रह-ए-हयात चमक उठ्ठे कहकशाँ की तरह
यूँ बाग़बाँ ने मोहर लगा दी ज़बान पर
सौ बार आई होंटों पे झूटी हँसी मगर