मता-ए-ग़म मिरे अश्कों ही तक नहीं महदूद
इन्हीं में टूटे सितारों को भी शुमार करो
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सौ बार आई होंटों पे झूटी हँसी मगर
यूँ बाग़बाँ ने मोहर लगा दी ज़बान पर
आए जो चंद तिनके क़फ़स में सबा के साथ
तरब-आफ़रीं है कितना सर-ए-शाम ये नज़ारा
मुझ को तो ख़ून-ए-दिल ही पीना है
हमेशा दूर के जल्वे फ़रेब देते हैं
कटेगी कैसे गुल-ए-नौ की ज़िंदगी या-रब
ये तो मालूम है उन तक न सदा पहुँचेगी
हुई सुब्ह जाम खनक उठे हुई शाम नग़्मे बिखर गए
चंद तिनकों के सिवा क्या था नशेमन में मिरे
बहुत उम्मीद थी मंज़िल पे जा कर चैन पाएँगे