ख़ुशी के फूल खिले थे तुम्हारे साथ कभी
फिर इस के ब'अद न आया बहार का मौसम
Javed Akhtar
Anwar Masood
Allama Iqbal
Gulzar
Faiz Ahmad Faiz
Mir Taqi Mir
Habib Jalib
Rahat Indori
Mohsin Naqvi
Parveen Shakir
Wasi Shah
Ahmad Faraz
Love Poetry
Funny Poetry
Sad Poetry
Rain Poetry
Sharabi Poetry
Friends Poetry
(583) Peoples Rate This
क्या इसी को बहार कहते हैं
मता-ए-ग़म मिरे अश्कों ही तक नहीं महदूद
बू-ए-गुल बाद-ए-सबा लाई बहुत देर के बा'द
बहुत उम्मीद थी मंज़िल पे जा कर चैन पाएँगे
है तिश्ना-लबी लेकिन हम क्यूँ उसे ज़हमत दें
गुल-ओ-ग़ुंचा अस्ल में हैं तिरी गुफ़्तुगू की शक्लें
बिजली गिरेगी सेहन-ए-चमन में कहाँ कहाँ
गुलों के रूप में बिखरे हैं हर तरफ़ काँटे
ताबानी-ए-रुख़ ले कर तुम सामने जब आए
हुई सुब्ह जाम खनक उठे हुई शाम नग़्मे बिखर गए
तरब-आफ़रीं है कितना सर-ए-शाम ये नज़ारा