कटेगी कैसे गुल-ए-नौ की ज़िंदगी या-रब
कि इस ग़रीब का ख़ानों में घर अभी से है
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हमेशा दूर के जल्वे फ़रेब देते हैं
रह-ए-हयात चमक उठ्ठे कहकशाँ की तरह
गुलों के रूप में बिखरे हैं हर तरफ़ काँटे
तीरा-ओ-तार फ़ज़ाओं में जिया हूँ अब तक
बू-ए-गुल बाद-ए-सबा लाई बहुत देर के बा'द
यूँ बाग़बाँ ने मोहर लगा दी ज़बान पर
गुल-ओ-ग़ुंचा अस्ल में हैं तिरी गुफ़्तुगू की शक्लें
ख़ुशी के फूल खिले थे तुम्हारे साथ कभी
ताबानी-ए-रुख़ ले कर तुम सामने जब आए
बहुत उम्मीद थी मंज़िल पे जा कर चैन पाएँगे
मुझ को तो ख़ून-ए-दिल ही पीना है