है तिश्ना-लबी लेकिन हम क्यूँ उसे ज़हमत दें
अपना ही लहू पी लें साक़ी को जगाएँ क्या
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ताबानी-ए-रुख़ ले कर तुम सामने जब आए
क्या इसी को बहार कहते हैं
तीरा-ओ-तार फ़ज़ाओं में जिया हूँ अब तक
तरब-आफ़रीं है कितना सर-ए-शाम ये नज़ारा
शबनम ने रो के जी ज़रा हल्का तो कर लिया
हमेशा दूर के जल्वे फ़रेब देते हैं
ये तो मालूम है उन तक न सदा पहुँचेगी
चंद तिनकों के सिवा क्या था नशेमन में मिरे
दिल की धड़कन भी है उन को नागवार
गुल-ओ-ग़ुंचा अस्ल में हैं तिरी गुफ़्तुगू की शक्लें
आए जो चंद तिनके क़फ़स में सबा के साथ
कटेगी कैसे गुल-ए-नौ की ज़िंदगी या-रब